बुधवार, 23 दिसंबर 2015

विस्मृति एक आदिम जिद है.










सड़क शहरों को जोड़ती नही
शहर को शहर बनाती है.
वो निर्धारित करती है 
हमारे चलने का ढंग,
हमारी गति,
और हमारा गंतव्य भी.
गलियों में चलने वाला मनुष्य ज्यादा स्वायत्त होता है. 

पहाड़ो, नदियों और अब तो 
समंदर तक भी पहुँच गयी है सड़क.
मेरा गाँव भी 
बस शहर से दूर है
सड़क से नही
जिसको पोषित करती है अनगिन गलियाँ .
मै दस बरस बाद भी गलियों से होता हुआ पहुँच सकता हूँ अपने गाँव वाले घर.

मुझे नही याद रहते सड़को के नाम, 
घरो के पते,
और रास्ते भी. 
पिता इसे स्मृति-दोष कहते है 
और तुम मेरी लापरवाही.    
मुझे गहरे मे ये विस्मृति कोई आदिम जिद-सी लगती है.

हांलाकि मै गलत भी हो सकता हूँ.
असल में,
जिस तरह आप एक ही नदी में दो बार नही उतर सकते,
आप एक ही सड़क पर दो बार नही चल सकते.
और मुझे याद नही उस रोज़ सड़क पर चलते हुए
मैंने इस विषय में क्या सोचा था.  


रविवार, 15 फ़रवरी 2015

थोड़ा ठहर कर












धुंधलापन तुम्हे वापस नही लौटाता
बशर्ते तुम्हे कोई जल्दी ना हो.

वहा से अँधेरा चला जाए
तो केवल प्रकाश बचता है
और प्रकाश चला जाए
तो भय

कमज़ोर है ये कहना कि
मै नही चाहता जाना
किसी का भी.
आने-जाने
जीतने-हारने
के शोर के बीच
ठहराव मेरे समय में एक महत्वाकांक्षा है.

थोड़ा ठहर कर
धुंध को भी निहारना चाहिए
क्या पता वही असल तस्वीर हो
और सफाई सिर्फ एक करामात
सुनो केवल इतना
कविता में नही
प्रार्थना में.

इसे मेरा अंतिम निष्कर्ष ना समझा जाए
अंतिम सुझाव भी नही
मै तो अंतिम रूप से प्रश्नचिह्न तक भी नही पहुँच पाता
उससे पहले की हूक पर ठिठक जाता हूँ.

हर बार.