शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

अँधेरे में कविता - १








उसने पूछा 

अब कविता नही लिखते?
मैंने सोचा 
ये शहर बहुत छोटा हैं 
और दुनिया बहुत बड़ी. 

उसने पूछा 
यूं ही चुप रहोगे ?
मैंने कहा 
प्रेम बहुत निजी हैं 
बाकी सब सामाजिक.

उसने पुछा 
क्या दुनिया सचमुच गोल हैं?
मैंने देखा 
दिन जल्दी बीत गया 
शाम ढल आयी हैं.

उसने पूछा 
हुआ क्या हैं?
मुझे लगा 
यहाँ जो भी न्यायाधीश नहीं हैं 
वो कठघरे में खड़ा हैं.

उसने शायद कहा ...
प्रेम..... .............?
जाने से पहले आखिरी बार 
मैंने उसकी आँखों में देखा.

~~~~~~

"वजह की तलाश में
बेवजह भटकते-भटकते 
खो मत जाना 
खयालो के उस बियाबान में 
जहाँ होता हैं 
इतना नीरव अन्धकार 
कि नहीं सूझता 
हाथ को हाथ
बुद्धि को तर्क 
और ह्रदय को प्रेम"

~~~~~~

शाम ठहर गयी
सब एक-दम शांत था 


वो दोनों अब समंदर को देख रहे थे 
बूझने की कोशिश मे 
कि ये सैलाब के बाद का सन्नाटा हैं 
या तूफ़ान से पहले की खामोशी ....... 







*चित्र हलें कोत्तले और डेन वर्नर के 

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