शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

पीपल का पेड़ और इक खाली बेंच..


एक पुराने से पीपल के पेड़ के नीचे बिछी हुयी बेंच की ओर जाता हूँ बैठने और पाता हूँ कि पेड़ के कुछ टूटे पत्ते वहाँ आकर पहले से ही बैठे हुए थे. वैसे भी इस तरह की बेंचो पर बैठना टूटे पत्तो को कुछ ज्यादा ही पसंद हैं. शायद.

अपने बैठने के लिए मै पत्तो को सादर करता हु किनारे और देखता हूँ कि उन पीले पत्तो की भीड़ में कुछ हरे पत्ते भी हैं. वैसे पेड़ से टूट चुके हरे पत्ते और आस - पास बिखरे पीले पत्तो में कोई फर्क होता हैं क्या?

होना तो चाहिए.
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मै जब अकेले किसी बेंच पर बैठने जाता हूँ मुझे याद आ जाता है बचपन - अपना स्कूल, पापा का आफिस, उसमे बहुत सारे मोर. और बाबा.
गाँव से सैकड़ो मील दूर उस छोटे से शहर में बाबा जब भी कुछ महीनो के लिए आते तो हर शाम स्टेशन घूमने जाने का सिलसिला शुरू हो जाता. जाते हुए कुल्फी खाना और आते हुए कोक की जिद करना उन घंटो की दिनचर्या थी. स्टेशन घूमना क्या होता था - बस जाकर एक बेंच पर बैठ जाते थे. वो खैनी बनाते और मै दूर हट जाता क्योकि नहीं तो उसकी ठसक नाक में लगती और फिर मै छींकता रहता.
(कभी कभी सिगरेट के किसी कश या धुएं से वो ठसक अचानक से उठती है आज भी).
एक बार बेंच पर बैठे तो समय मानो ठहर जाता था. छोटे से स्टेशन से गुज़रती कुछ ट्रेन, मालगाड़ीयाँ, और इक्का दुक्का मुसाफिर. उस समय बेंच पर गिरने वाले पीले पत्ते मुझे याद नहीं. मुझे याद है बेंच पर बैठे बाबा.
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मेरे लिए स्टेशन संसार से उतने ही बाहर है जितना विश्वामित्र के लिए काशी थी.
(सारी दुनिया दान देने के बाद भी विश्वामित्र का बचा हुआ क़र्ज़ उतारने के लिए हरिश्चंद्र को काशी के एक मरघट में काम करना पड़ा. काशी में - क्योकि बाकी की दुनिया तो दान कर चुके थे).
अपनी दुनिया से मुझे जब भी बाहर निकलने का मन होता है, मै स्टेशन जाता हूँ. किसी एक शहर में होते हुए भी स्टेशन किसी एक शहर का नही होता.
स्टेशन तो शहर से बाहर जाने का द्वार होता है. (वैसे बाहर जाने का द्वार ही अन्दर आने का रास्ता भी सुझाता है!)
और स्टेशन से आने - जाने वालो की भीड़ के बीच कही न कही एक खाली बेंच इंतज़ार कर रही होती है.

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वैसे जिस पीपल के नीचे बुद्ध बैठते थे - वहां भी ज़रूर कोई बेंच रही होगी.
बुद्ध, बेंच और पीपल से मेरा प्रेम पुराना है.
जीवन प्रेम की खोज है. प्यास है. और एक सफल जीवन - प्रेम की श्रंखला.
हर प्रेम पिछले प्रेम की कीमत पर नही होता बल्कि उसे संजो के होता है.

'ज़िन्दगी मुझ को तेरा पता चाहिये'









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