शनिवार, 23 मार्च 2013

डायरी... आखिरी पन्ना.

मिट्टी,
और
पानी, और
थोडा सा लाल रंग
का घोल बना कर
डाल गया था कोई आसमान पर.


वो
अपने कदमो के निशान
छोड़ गया था
उस सड़क पर
जो
इक ऊँची-नीची रेखा की तरह
क्षितिज को क्षितिज
से जोड़ती प्रतीत होती थी


इस पर चलने वाले
वो दोनों
शाश्वत प्रेमी थे.
क्षितिज से निकले थे
अनंत की यात्रा पे .


उस यात्रा में कई पड़ाव रहे -
विश्राम के लिए.
प्रेम के लिये.
गंगा,
अमृत,
और
विष भी बहा.
वो गंगारोहण और अमृतमंथन
के संगम का प्रतीक थे.


यात्रा अधूरी रही -
हर यात्रा की तरह.
वो यात्री
प्रेमी रहेंगे
सहयात्री नहीं.

यात्रा का एक मूल्य होता है
जो यात्री बिछुड़ कर चुकाते है.


....'अब मै आकाश को पुकारना चाहता हूँ'

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