बुधवार, 23 जनवरी 2013

वो. जीवन.

                १ 
दिन भर द्वार खटकाने के बाद
चली गयी थी धूप
छोड़ कर के कुछ रंग
थोड़ी सी गर्माहट
और बहुत सारा भारीपन

आँखों को चुभा घना  अन्धेरा
जो हर बीतते पल के साथ हो रहा था और सघन,
और आरामदेह,

और खतरनाक

उसने डिब्बे में बंद की कुछ आवाज़े
एक काग़ज़ में लपेटी थोड़ी सी खुशबु
जेब में डाल ली एक धुन
चेहरे पे मली थोड़ी सी चांदनी

और निकल पड़ा वो घर से,
रास्ते चलते रहे
पैरो के नीचे से 
और वो गुज़रता गया 
जैसे गुज़र जाती है सदिया 
होते हुए मिथकों से 
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                २ 
उसके निकलने के बाद
कमरे में गयी थी वो
बटोरने कुछ यादे
समेटने कुछ टुकड़े
(जिन्हें इतिहास अपने साथ ले जाना भूल जाता है अक्सर
एक गैरजिम्मेदाराना जल्दीबाजी में) 

कमरा-जिसमे छूट गयी थी- थोड़ी सी खुशबु, एक मुस्कान 
और थोड़ा सा अकेलापन
फर्श पर बिखरी थी
थोड़ी सी चांदनी
और बहुत सारी धूल
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                ३ 
उस घर ने देखा था पथिक को
समझा था उसकी यात्रा को 
और सहा था लंबा इंतज़ार भी 

घर बेबस था,
असफल था, 
सुरक्षित था

घर तटस्थ था. 


क्योकि कुछ जगहों पर रह जाता है हमारा कुछ हिस्सा ..
समय, इतिहास और कारणों से परे.. कुछ निजी.